शाम थी हम थे और समुंदर था किस क़दर दिल-फ़रेब मंज़र था इक तरफ़ थी ख़ुशी उजालों की इक तरफ़ शाम होने का डर था थे परेशान तीर नज़रों के जब तलक दिल मिरा हदफ़ पर था वो था कमसिन ये सच सही लेकिन हसरतों में मिरे बराबर था दिल तो था मुतमइन रिफ़ाक़त में ख़ौफ़ सा धड़कनों के अंदर था अपने हाथों उसे गँवाया है जिस में पिन्हाँ मिरा मुक़द्दर था उस की रंगीन क़ुर्बतों के सबब रात जन्नत-नुमा मिरा घर था शहर-ए-जाँ की उदास गलियों में मुश्तइ'ल ख़्वाहिशों का लश्कर था शोर कमरे में था क़यामत का चुप का आलम 'ख़याल' बाहर था