वहम कैसा गुमान में भी नहीं तुम फ़क़ीरों के ध्यान में भी नहीं हम दिल-ए-दोस्ताँ में रहते हैं तुम तो अपने मकान में भी नहीं अब वो पत्थर कहाँ से आएगा अब तिरा घर चटान में भी नहीं वर्ना तुम को फ़रोख़्त कर देते तुम हमारी दुकान में भी नहीं लोग रौशन हैं अपनी मिट्टी से तुम किसी ख़ाक-दान में भी नहीं हम तो अपने परों पे उड़ते हैं तुम पराई उड़ान में भी नहीं आज क्या धूप तुम को चाट गई आज तुम साएबान में भी नहीं एक राहत जो क़ुर्ब-ए-यार में है मय-कदे की अमान में भी नहीं उस के लहजे में वो मिठास थी 'क़ैस' अपनी उर्दू ज़बान में भी नहीं