शब-ए-ग़म मिरी शब-ए-ग़म सर-ए-शाम लौट आना न कहीं तिरा ठिकाना न कहीं मिरा ठिकाना तुझे क्या है इस से हासिल कि क़मर है तेरी मंज़िल तिरे सर पे है अभी तक वही आसमाँ पुराना तुझे हुस्न-ओ-इश्क़ दोनों ही अता हुए ये कह कर ये चमन है मुस्कुराना ये नदी है डूब जाना कोई आज तक न समझा कि शबाब है तो क्या है यही उम्र जागने की यही नींद का ज़माना जो ज़रा सी आँख खोली तो हज़ार हश्र देखे ये ख़ुदी जो सो रही है इसे अब न फिर जगाना