शब-ए-वस्ल रूठा है दिलबर किसी का न यूँ बन के बिगड़े मुक़द्दर किसी का ग़श आया जो मुझ को तो ज़ालिम ये बोला न रक्खेंगे ज़ानू पे हम सर किसी का मसहरी पे फूलों की सोता है कोई तड़पता है काँटों पे मुज़्तर किसी का गए वो तो तक़दीर फूटी किसी की वो आए तो चमका मुक़द्दर किसी का दम-ए-क़त्ल भी मुँह फिराए हुए है बड़ा बे-मुरव्वत है ख़ंजर किसी का वो देखा किए ले के सीमाब पहरों जो याद आ गया क़ल्ब-ए-मुज़्तर किसी का सबा जा के चुपके से कहना किसी से दिल आया है ऐ शोख़ तुझ पर किसी का पस-ए-मर्ग आया जो तुर्बत पे क़ासिद तो रोया बहुत नाम ले कर किसी का शब-ए-वस्ल मेरा कुछ इसरार करना बढ़ाना वो शर्मा के ज़ेवर किसी का न पामाल कर इस को ग़ुंचा समझ कर ये दिल है अरे ओ सितमगर किसी का तड़पता है 'नौशाद' फ़ुर्क़त में हर-दम जुदा हो किसी से न दिलबर किसी का