शब जो रुख़-ए-पुर-ख़ाल से वो बुर्के को उतारे सोते हैं चश्म-ए-क़मर लगती ही नहीं क्या बल्कि न तारे सोते हैं बंद किए आँखें वो अपनी नश्शे के मारे सोते हैं वक़्त यही है घात का ऐ दिल देख चिकारे सोते हैं हिज्र में तेरे शम्स ओ क़मर की आँख लगे क्या लैल-ओ-नहार चर्ख़ के कब गहवारे में ये इश्क़ के मारे सोते हैं आया था वो माह-जबीं इक़रार पे आधी रात को आह यारो क्यूँकर जागते रहिए बख़्त हमारे सोते हैं फ़ुर्सत पा कर हाथ लगाया पाँव को उन के जब मैं ने कहने लगे चल दूर सरक मत हाथ लगा रे सोते हैं बिस्तर-ए-गुल की बालिश-ए-पर की उन को नहीं कुछ हाजत है सर को तिरे ज़ानू पर रख जो शब को प्यारे सोते हैं क्या जाने इस ख़्वाब-ए-अदम में लज़्ज़त है जो अहल-ए-क़ुबूर अपने अपने घर में हाँ यूँ पाँव पसारे सोते हैं इक मुद्दत में फिरते फिरते मुँह से सुनी दरबाँ के ये बात शुक्र ख़ुदा का अपने वो घर में आज तो प्यारे सोते हैं चोरी से हम शब को पहुँचे पाँव तलक जूँ दुज़द-ए-हिना लेकिन चौकीदार कई नज़दीक तुम्हारे सोते हैं उस के क़रीब-ए-चश्म कहाँ है ख़ाल दिला टुक ग़ौर से देख कैफ़िय्यत से मस्त पड़े दरिया के किनारे सोते हैं वो तो कभी बेदारी में जुज़-ख़्वाब नहीं मिलते यारो कोई हमें हरगिज़ न उठाना हिज्र के मारे सोते हैं माँग में तेरी क्यूँ न करें उश्शाक़ के दिल आराम भला हैं ये मुसाफ़िर रस्ते में मंज़िल के मारे सोते हैं चश्म-ए-मुलाक़ात उन से रखिए तू ही बता किस वज्ह 'नसीर' ग़ैर की जानिब अबरू से वो कर के इशारे सोते हैं