वक़्त की बाज़गश्त से कब ये हुआ कि डर गए दर्द की धूप ढल गई हिज्र के दिन गुज़र गए तेज़ क़दम निकल गए धूप की सरहदों से दूर राह की छाँव देख कर सुस्त क़दम ठहर गए लोग भी हैं नए नए शहर भी हैं नए नए बातें वो खो गईं कहाँ रस्ते वो सब किधर गए बारिश-ए-रंग-ओ-नूर से जान चमन में पड़ गई फूल तमाम खिल उठे पेड़ सभी निखर गए ले के चले थे नर्मियाँ घर से गुलों की सुब्ह को बर्ग-ए-ख़िज़ाँ थे शाम जब लौट के अपने घर गए हम को हवा-ए-वक़्त ने दी है शिकस्त बारहा सीप की तरह बंद थे गुल की तरह बिखर गए शे'र लिखूँ तो किस तरह नज़्म कहूँ तो क्यूँ भला मेरी ज़बान छिन गई हाथ मिरे कतर गए तोड़ना थीं रिवायतें मोड़ना थीं हिकायतें लोग वो ख़ुद-पसंद थे हँसते हुए जो मर गए