शब को इक बार खुल के रोता हूँ By Ghazal << शब-ए-फ़िराक़ अचानक ख़याल ... मिरे मज़ार पे आ कर दिए जल... >> शब को इक बार खुल के रोता हूँ फिर बड़े सुख की नींद सोता हूँ अश्क आँखों के बीच होते हैं मैं उन्हें खेत खेत बोता हूँ मेरे आँसू कभी नहीं रुकते मैं हमेशा वज़ू में होता हूँ होता जाता हूँ उस सख़ी के क़रीब जैसे जैसे ग़रीब होता हूँ Share on: