शब-ए-ज़िंदगानी सहर हो गई बहर-कैफ़ अच्छी बसर हो गई न समझे कि शब क्यूँ सहर हो गई इधर की ज़मीं सब उधर हो गई ज़माने की बिगड़ी कुछ ऐसी हवा कि बे-ग़ैरती भी हुनर हो गई अमाइद ने की वज़्अ' जो इख़्तियार वही सब को मद्द-ए-नज़र हो गई गए जो निकल दाम-ए-तज़वीर से हज़ीमत ही इन की ज़फ़र हो गई ज़मीं मुंक़लिब आसमाँ चर्ख़-ज़न इक़ामत भी हम को सफ़र हो गई मिटा डालिए लौह-ए-दिल से ग़ुबार किसी से ख़ता भी अगर हो गई बराह-ए-करम उस को तय कीजिए जो अन-बन किसी बात पर हो गई न करना था बिज़्ज़िद मदावा-ए-ग़म बड़ी चूक ऐ चारा-गर हो गई ये हंगामा-आरा हैं सब बे-ख़बर वो चुप हैं जिन्हें कुछ ख़बर हो गई