साक़ी-ए-ख़ुम-ख़ाना था जो सुब्ह-ओ-शाम रोज़-ए-आदीना था मस्जिद में इमाम जिस ने चश्म-ए-मस्त-ए-साक़ी देख ली ता-क़यामत उस पे हुश्यारी हराम इस लब-ए-जाँ-बख़्श की बातें थीं या मो'जज़ात-ए-ईसी-ए-गर्दूं-मक़ाम हो गया उस को क़यामत का यक़ीं जिस ने देखा सर्व-क़ामत का ख़िराम चश्मा-ए-आब-ए-बक़ा की लहर थी वो इबारत वो इशारत ला-कलाम मर्हबा इत्र-ए-गरेबाँ की शमीम है मोअत्तर जिस से रूहानी मशाम थी ज़बाँ या क़ाते-ए-औहाम या ज़ुल्फ़िक़ार-ए-हैदरी थी बे-नियाम जिस ने देखा नर्गिस-ए-शहला का ख़्वाब इस ने पाया रम्ज़-ए-क़लबी ला-यनाम क़ाला अत्ममतो अलैकुम नेमती हो गईं सब ख़ूबियाँ उस पर तमाम जिस ने चाटी उत्बा-ए-उल्या की ख़ाक तल्ख़ी-ए-दौराँ से हो क्यूँ तल्ख़-काम ऐ सबा सहरा-ए-जाँ में कर तलाश किस तरफ़ हैं वो सुरादिक़ वो ख़ियाम ख़ल्वत-ए-लैला में तू गुज़रे अगर तो ये कह देना हमारा भी पयाम तिश्नगान-ए-शौक़ हैं गुम-कर्दा-राह तू भी चल बहर-ए-ख़ुदा दो-चार गाम बहर में बरपा हुआ जोश-ओ-ख़रोश हब्बज़ा रुश्हात-ए-कासातिल-किराम सौंप दी थी दस्त-ए-क़ुदरत ने तुझे नाक़ा-ए-लैला-ए-मा'नी की ज़माम