शब-ए-सियाह से जो इस्तिफ़ादा करते हैं वही चराग़ों का मातम ज़ियादा करते हैं दिलों का दर्द कहाँ जाम में उतरता है हरीफ़-ए-वक़्त को हम ग़र्क़-ए-बादा करते हैं पुरानी तल्ख़ियाँ दामन बहुत पकडती हैं कभी नया जो कोई हम इरादा करते हैं पड़ी थी दिल की ज़मीं जाने कब से बे-मसरफ़ अब उस में यादों के बुत ईस्तादा करते हैं अजीब दौर है ये जिस में सारे दानिश-वर दिलों को तंग मकाँ को कुशादा करते हैं ये आसमान-ए-वतन क्यूँ रिदा हमारी है हम इस ज़मीन को कैसे लबादा करते हैं