शबनम ने कब इस बात से इंकार किया है किरनों ने सदा उस से बहुत प्यार किया है शाख़ों पे अब इल्ज़ाम कोई बाद-ए-सबा क्यूँ तू ने ही तो हर शाख़ को तलवार किया है किस किस पे किए लुत्फ़-ओ-करम शहर-ए-तरब ने हम पर भी कोई साया-ए-दीवार किया है कुछ सख़्ती-ए-इमरोज़ तो कुछ ये भी कि यारो क़र्ज़-ए-ग़म-ए-फ़र्दा ने गिराँ-बार किया है जंग अपने मुक़द्दर से ख़रीदी है कि हम ने इक शख़्स है दिल दे की जिसे यार किया है इक लम्हे के एहसास ने तन्हा-सफ़री में बरसों के लिए वक़्त से हुशियार किया है होगा कोई भेद इस में कि नाम अपना हमीं ने बद-नाम सर-ए-कूचा-ओ-बाज़ार किया है जिस दश्त से लाए थे वहीं ले चलो यारो क्यूँ ऐसे ख़राबे में हमें ख़ार किया है ख़ुश होते हैं शेरों से समझते हैं कहाँ लोग शाएर ने किसी दर्द का इज़हार किया है