तब कराँ ता-ब-कराँ सुब्ह की आहट गूँजी आफ़्ताब एक धमाके से उफ़ुक़ पर आया अब न वो रात की हैबत थी न ज़ुल्मत का वो ज़ुल्म परचम-ए-नूर यहाँ और वहाँ लहराया जितनी किरनें भी अंधेरे में उभर कर उभरीं नोक पर रात का दामान दरीदा पाया मेरी तारीख़ का वो बाब-ए-मुनव्वर है ये दिन जिस ने इक क़ौम को ख़ुद उस का पता बतलाया