शबनम तो बाग़ में है न यूँ चश्म-ए-तर कि हम ग़ुंचा भी इस क़दर है न ख़ूनी जिगर कि हम जूँ आफ़्ताब उस मह-ए-बे-महर के लिए ऐसे फिरे न कोई फिरा दर-ब-दर कि हम कहता है नाला आह से देखें तो कौन जल्द उस शोख़ संग-दिल में करे तू है घर कि हम है हर दुर-ए-सुख़न पे सज़ा-वार गोश-ए-यार मोती सदफ़ रखे है पर ऐसे गुहर कि हम मुँह पर से शब नक़ाब उठा यार ने कहा रौशन-जमाल देख तू अब है क़मर कि हम ज़र क्या है माल तुझ पे करें नक़्द-ए-जाँ निसार इतना तो और कौन है ऐ सीम-बर कि हम ता-ज़ीसत हम बुतों के रहे साथ मिस्ल-ए-ज़ुल्फ़ यूँ उम्र किस ने की है जहाँ में बसर कि हम ग़ुस्सा हो किस पे आए हो जो तेवरी चढ़ा लाएक़ इताब के नहीं कोई मगर कि हम 'बेदार' शर्त है न पलक से पलक लगे देखें तो रात जा के है या तू सहर कि हम