शहर की लिख गया इक धुआँ दास्ताँ बाम-ओ-दर हो गए ख़ूँ-चकाँ दास्ताँ सुनने वालों को हो जब गिराँ दास्ताँ छोड़ दो फिर वहीं हो जहाँ दास्ताँ एक ही सब की रूदाद है शहर में हर मकीं दास्ताँ हर मकाँ दास्ताँ ये तो माज़ी के औराक़ बतलाएँगे उस ने फ़र्दा की लिक्खी कहाँ दास्ताँ मेरा और उस का हर राज़ इफ़्शा हुआ जग में कहता फिरा राज़दाँ दास्ताँ दश्त-ओ-सहरा भी हम-राह चलने लगे जब सुनाता चला सारबाँ दास्ताँ तू 'वफ़ा' नुक्ता-चीनों की महफ़िल में है मत सुना जाएगी राएगाँ दास्ताँ