शहर को आतिश-ए-रंजिश के धुआँ तक देखूँ मक़्तल ज़ीस्त को आख़िर मैं कहाँ तक देखूँ फिर ये मानूँगा ख़मोशी पे ज़वाल आया है दिल धड़कने की सदा जब मैं ज़बाँ तक देखूँ ये तमन्ना है ख़ुदा आलम-ए-हस्ती में तिरे मैं अयाँ देखना चाहूँ तो निहाँ तक देखूँ जब कि अब राब्ता रखने का बहुत है इम्काँ फिर भी वीरानियाँ फैलीं हैं जहाँ तक देखूँ क्या तसव्वुर मिरी आँखों ने नवाज़ा है मुझे ख़ुद को देखूँ तो मैं एहसास-ए-ज़ियाँ तक देखूँ मानता हूँ कि है ज़ुल्मात-ए-अज़ल उस का नसीब रात की ज़िद है उसे अपनी फ़ुग़ाँ तक देखूँ ये भी अस्लाफ़ की तहज़ीब है 'अज़हर' मैं यहाँ अपना किरदार तमाम अम्न-ए-अमाँ तक देखूँ