तस्बीह-ए-कुमरी सर्व-ए-सनोबर समेट लो जाना है इस दयार से मंज़र समेट लो पर्वाज़-ए-कामयाबी की बस इतनी शर्त है चाहत हिसार-ए-नफ़स के अंदर समेट लो उस अश्क की तड़प के मुक़ाबिल में कुछ नहीं अब चाहे चश्म-ए-नम में समुंदर समेट लो ताक़त पे पहले अपनी तो राज़ी ख़ुदा करो फिर बाज़ूओं में तुम दर-ए-ख़ैबर समेट लो मेरा मकाँ नहीं है ख़ता-बीं के वास्ते आओ मगर मिज़ाज को बाहर समेट लो 'अज़हर' ये दौर-ए-ऐश है याँ जीने के लिए आज़ुर्दा ज़ेहन और दिल-ए-मुज़्तर समेट लो