शहर में लाख चराग़ाँ हो तो क्या होता है मेरे घर में वही मिट्टी का दिया होता है दर्द सीने में मिरे जब भी महक उठता है ज़ख़्म यादों का तिरी और हरा होता है दास्ताँ ग़म की सिनाओं ये ज़रूरी तो नहीं नफ़्स-ए-मज़मून तो चेहरे पे लिखा होता है शिद्दत-ए-ग़म से न मिट जाए कहीं मेरा वजूद रोज़ इक ग़म मिरी चौखट पे खड़ा होता है क़त्ल करता है वो हर रोज़ मुझे क़िस्तों में मेरे एहसास में जो दर्द छुपा होता है तेरी महफ़िल से निकल जाऊँ यही अच्छा है यहाँ हर रोज़ नया हश्र बपा होता है ग़र्क़ हो जाए न कश्ती कहीं डर से 'आरिफ़' नाख़ुदा कहता है मंजधार से क्या होता है