शहर में ओले पड़े हैं सर सलामत है कहाँ इस क़दर है तेज़ आँधी घर सलामत है कहाँ रात ने ऐसी सियाही अब बिखेरी चार-सू आँख वालों के लिए मंज़र सलामत है कहाँ आप कहते हैं छुपा लूँ अपनी उर्यानी मगर जिस्म से लिपटी हुई चादर सलामत है कहाँ क़ुलक़ुल-ए-मीना से अपनी प्यास तो बुझती नहीं चूर सब शीशे हुए साग़र सलामत है कहाँ रेज़ा रेज़ा हो गई हर शख़्स की पाकीज़गी संग-सारी के लिए पत्थर सलामत है कहाँ कोई चेहरा अस्ल सूरत में रहे बाक़ी तो क्यूँ बुत-शिकन के अहद में आज़र सलामत है कहाँ हर तरफ़ इक जंग का माहौल है 'आज़म' यहाँ आदमी अब घर के भी अंदर सलामत है कहाँ