शहर-बदरी के दिन गुज़र जाते कितना अच्छा था लोग घर जाते आन दे कर के जान लाए हो क्या ये लाज़िम नहीं था मर जाते हुक्म नाफ़िज़ था अपने घर में रहो बे-घरी हम बता किधर जाते मोहतसिब ने बड़ी ही जल्दी की ऐन मुमकिन था हम सुधर जाते उम्र जैसी गुज़ार दी हम ने तुम को मिलती तो कब के मर जाते हाए-रे इल्तिफ़ात-ए-चारागर ज़ख़्म गहरे नहीं थे भर जाते लोग कुछ देख कर ठिटकते थे और कुछ सोच कर गुज़र जाते खा गए रोग आगही वाले वर्ना ख़ुश-बाश दिन गुज़र जाते दिल तलक आन कर रुके सब खेल क्या मज़ा था जो इस में सर जाते बैर ले कर भी सारी दुनिया के इक तुझे हम-ख़याल कर जाते ना शुऊ'री में ख़ुश थी दुनिया 'शम्स' हम भी ऐ काश बे-ख़बर जाते