शहर-ए-वफ़ा में अपना कोई आश्ना न था मैं था अकेला साथ कोई रहनुमा न था रूदाद-ए-अहद-ए-रफ़्ता सुनाई थी मैं ने जब आँसू किसी की आँख में ठहरा हुआ न था सूरज था अपनी फ़हम का ऐसा बुझा बुझा जैसे कि रौशनी का उसे तज्रबा न था जंगल में आरज़ू के भटकता था इक गदा याद उस को अपने शहर-ए-अमाँ का पता न था मैं तो अज़ल से वक़्त के ज़िंदाँ में क़ैद था दुनिया-ए-रंग-ओ-बू से कोई राब्ता न था सींचा था मैं ने नहर-ए-गुमाँ से यक़ीं का आब लेकिन हुनर के खेत में पौदा उगा न था आईना अपने ख़्वाब-ए-हसीं का था रू-ब-रू चेहरा मगर ज़मीर का मुझ से छुपा न था