शहर में इंसाफ़ क्या अच्छा हुआ आप सच्चे और मैं झूटा हुआ हो गया वो बे-नियाज़-ए-दो-जहाँ ऐ ख़याल-ए-यार जो तेरा हुआ रंग-ए-रुख़ है तर्जुमान-ए-वस्ल-ए-ग़ैर ज़ुल्फ़-ए-बरहम से तो पूछो क्या हुआ थम ज़रा ऐ दीदा-ए-ख़ूँ-बार आज देख तो ये कौन है बैठा हुआ आग भड़काने को निकली दिल से आह तूर पर जो कुछ हुआ थोड़ा हुआ इक तड़प में और वो बेताब हों तू भी ऐ दर्द-ए-जिगर इतना हुआ सीख ले हम से कोई अंदाज़-ए-इश्क़ सो तिरा ये रंग है बरता हुआ उठ गया जब उन के चेहरे से नक़ाब ज़र्रा ज़र्रा दीदा-ए-बीना हुआ एक हंगामा था उन को चाहना अक़रबा में हश्र सा बरपा हुआ साँस उखड़ा नब्ज़ छूटी मैं चला हाए तुम अब तक न समझे क्या हुआ शाहिद-ओ-मीना मुक़द्दर में नहीं बा-ख़ुदा 'नाज़िश' अबस पैदा हुआ