शैख़-ओ-वाइज़ को ख़ुदारा हम-नशीं मत कीजिए काम जो शायान-ए-अहल-ए-दिल नहीं मत कीजिए देखिए बस ये कि इज़्न-ए-चश्म-ए-जानाना है किया इश्क़ है तो इम्तियाज़-ए-कुफ़्र-ओ-दीं मत कीजिए डाल दें जो दिल के दरवाज़ों पे बे-मेहरी के क़ुफ़्ल जी में ऐसी आरज़ूओं को मकीं मत कीजिए ज़ेहन में ज़ौक़-ए-गुमाँ की भी न गुंजाइश रहे इस क़दर तौहीन-ए-आदाब-ए-यक़ीं मत कीजिए शौक़ से हो लीजिए अहल-ए-जुनूँ के साथ साथ हाँ मगर फिर फ़िक्र-ए-जेब-ओ-आस्तीं मत कीजिए है लगन तो कीजिए सहरा-नवर्दी मिस्ल-ए-क़ैस सिर्फ़ ज़िक्र-ए-लैला-ए-महमिल-नशीं मत कीजिए दश्त में खो जाइए जंगल में जा बसिये मगर रूह को बहर-ए-ख़ुदा उज़्लत-गुज़ीं मत कीजिए मुस्कुरा कर टाल दीजे दाद-ख़्वाह-ए-शौक़ को हाँ अगर मुमकिन नहीं है तो नहीं मत कीजिए लुत्फ़ का तालिब है माल-ओ-ज़र का सौदाई नहीं अपने साइल पर निगाह-ए-ख़श्म-गीं मत कीजिए इश्क़ के बारे में ना-महरम जो कहते हैं कहीं ख़ंदा-पेशानी से सुन लीजे यक़ीं मत कीजिए