शजर को छोड़ चला पात पात का जादू उगाया घात ने टहनी पे रात का जादू अमीर-ए-शहर की दीवार चाटने वाले समेट ले गए सदियों की बात का जादू खुली थी दिन को परिंदे की ताक़त-ए-परवाज़ बदन पे चल गया जंगल की रात का जादू सजी थी ज़ह्र की पेचीदगी सर-ए-बाज़ार बिका गली में सपेरे के हात का जादू मता-ए-चश्म दुल्हन घर ही छोड़ आई थी नशे में झूम रहा था बरात का जादू