शकर-ख़्वाबी से बिल-आख़िर मुझे बेदार होना था कि अपनी ज़ात से इक दिन मुझे दो-चार होना था तिरे हाथों में तेशा देख कर जी ख़ुश हुआ मेरा किसी के हाथ शहर-ए-दिल मिरा मिस्मार होना था हमारी दास्ताँ से कोई दिलचस्पी न थी उस को उसे अपनी कहानी का फ़क़त किरदार होना था तुझे ऊँची फ़सीलों से निहायत ही ख़ौफ़ लगता था मगर मुझ को फ़लक से बरसर-ए-पैकार होना था