शाख़-ए-ताज़ा पे ये जफ़ा न करो ख़ार से गुल कभी जुदा न करो तुम किसी का अगर भला न करो कम से कम ये करो बुरा न करो ग़ैरत-ए-इश्क़ का तक़ाज़ा है घुट के मर जाओ इल्तिजा न करो दोस्ती का कोई सवाल नहीं दुश्मनी में भी बद-दुआ' न करो जब भी निकलो तलाश-ए-मंज़िल में लोग कुछ भी कहें सुना न करो तन से सर काट लो ये बेहतर है दोस्तो दिल से दिल जुदा न करो वुसअ'त-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न न हो जिस में 'ज़ाकिर' ऐसी ग़ज़ल कहा न करो