शाम आई दर्द का बिस्तर खुला अब रहेगा ज़ख़्म-ए-दिल शब-भर खुला क़त्ल का इल्ज़ाम मुझ पर किस लिए ख़ून उस की आस्तीनों पर खुला पावँ के नीचे ज़मीं दोज़ख़ हुई और सर पर धूप का ख़ंजर खुला अम्न का दफ़्तर भी उस के घर में है छोड़ रक्खा है उसी ने शर खुला नफ़रतों के इस कुएँ को छोड़िए आईये बाहर कि है बाहर खुला तुल गए आदर्श सब दौलत के भाव इस सदी का क्या अजब मंज़र खुला मुँह से उस के फूल झड़ते हैं 'नियाज़' हाथ में रखता है वो निश्तर खुला