शुऊर-ए-इश्क़ हासिल हो तो जीने का शिआ'र आए हमारे बाज़ूओं में आसमान-ए-बे-हिसार आए बहुत चाहा मिलें पेड़ों के साए साथ फूलों का मिरे हिस्से में लेकिन ज़िंदगी के रेग-ज़ार आए खुला हम पर कि ए'ज़ाज़-ए-शहादत हम को मिलना है घरों घर दस्तकें दे दीं गली कूचा पुकार आए असा हिम्मत का अपनी हर जगह रस्ता बना देगा हमारे सामने नद्दी पड़े या कोहसार आए अगर ये तय नहीं है फूल हम को मिल ही जाएँगे तो फिर बेहतर यही है हम को ज़ख़्मों का शुमार आए तहों में सो रहा है इक तलातुम आरज़ूओं का समुंदर चाँद को देखे तो मौजों में उभार आए 'नियाज़' एक काम था सर दे के करने का सो कर डाला फ़सील-ए-शहर से बातिल का परचम हम उतार आए