शाम ढलते ही उजालों को उगाते हैं चराग़ दुश्मनी यूँ भी अँधेरों से निभाते हैं चराग़ जश्न ही जश्न का माहौल बना रक्खा है झूमती लौ से ज़माने को लुभाते हैं चराग़ इब्तिदा ये है कि क़ातिल की पज़ीराई है इंतिहा ये है कि तहज़ीब को ढाते हैं चराग़ दिल मुनव्वर हो तो ज़ुल्मत भी सुकूँ देती है वर्ना आँखों की ही वीरानी बढ़ाते हैं चराग़ इन को आँधी से भी लड़ने का हुनर आता है बे-ज़बाँ हो के भी क्या क्या न सिखाते हैं चराग़ आ मिरी जान मिरी रूह को रौशन कर दे आ सर-ए-आम मोहब्बत के सजाते हैं चराग़ लम्हा लम्हा मिरी ख़ल्वत में सिमट कर 'शाहिद' दास्ताँ मौज में मक़्तल की सुनाते हैं चराग़