शाम-ए-ग़म की सहर नहीं आती रौशनी मेरे घर नहीं आती आदमी तो दिखाई देते हैं आदमिय्यत नज़र नहीं आती उस तरफ़ है गुज़र बसर कैसी कुछ अदम से ख़बर नहीं आती गुज़री साअ'त का इंतिज़ार न कर वो कभी लौट कर नहीं आती मैं बना हूँ कुछ ऐसी मिट्टी से दर्द में आँख भर नहीं आती