शम्अ' रौशन है हमारी आह से लौ लगाए बैठे हैं अल्लाह से चलते हैं क्या-क्या वो रस्ता काट कर जब गुज़रते हैं हमारी राह से क्यों न रक्खूँ मैं तबर्रुक की तरह ग़म मिला है इश्क़ की दरगाह से एक बोसे पर हमें टालें न आप कुछ अलावा दीजिए तनख़्वाह से माँग कर तुझ को बहुत नादिम हुआ माँगना था और कुछ अल्लाह से ख़ूबसूरत हो के तुम लड़ने लगे बहस है दिन रात मेहर-ओ-माह से तू ने वाइ'ज़ ज़िंदगी दुश्वार की क्यों किया वाक़िफ़ ख़ुदा की राह से