शाम-ए-फ़ुर्क़त इंतिहा-ए-गर्दिश-ए-अय्याम है जितनी सुब्हें हो चुकी हैं आज सब की शाम है कू-ए-जानाँ देख कर जन्नत से यूँ मायूस हूँ पूछता फिरता हूँ क्या जन्नत इसी का नाम है इस तरह दुनिया है इक मामूरा-ए-नाज़-ओ-नियाज़ ज़र्रे ज़र्रे पर मिरा सज्दा तुम्हारा नाम है अल्लाह अल्लाह ये तग़ाफ़ुल और इस पर ये ग़ुरूर क्या मुझे नाकाम कर देना भी कोई काम है हाँ नहीं 'सीमाब' मुझ को अपनी हस्ती पर ग़ुरूर जानता हूँ मैं मिरी दुनिया फ़ना-अंजाम है