शम-ए-कुश्ता की तरह मैं तिरी महफ़िल से उठा आह कैसी वो धुआँ था जो बुझे दिल से उठा खेल है हस्ती-ए-मौहूम मगर है दिलचस्प जो यहाँ बैठ गया आ के वो मुश्किल से उठा तू ने ये किस को उठाया है कि दिल बैठ गए कौन बैठा है कि फ़ित्ना तिरी महफ़िल से उठा कौन ग़र्क़ाब हुआ है कि उड़ाता हुआ ख़ाक आज बे-ताब बगूला लब-ए-साहिल से उठा हम-सफ़र है कोई उफ़्ताद तो पेश आने को कि क़दम आज उलझता हुआ मंज़िल से उठा जी चुराने की नहीं शर्त दिल-ए-ज़ार यहाँ रंज उठाने ही की ठहरी है तो फिर दिल से उठा अहल-ए-हक़ भी यहीं मिल जाएँगे उठ तो 'नातिक़' हक़ की आवाज़ तो बुत-ख़ाना-ए-बातिल से उठा