शम्-ए-तन्हा की तरह सुब्ह के तारे जैसे शहर में एक ही दो होंगे हमारे जैसे छू गया था कभी इस जिस्म को इक शोला-ए-दर्द आज तक ख़ाक से उड़ते हैं शरारे जैसे हौसले देता है ये अब्र-ए-गुरेज़ाँ क्या क्या ज़िंदा हूँ दश्त में हम उस के सहारे जैसे सख़्त-जाँ हम सा कोई तुम ने न देखा होगा हम ने क़ातिल कई देखे हैं तुम्हारे जैसे दीदनी है मुझे सीने से लगाना उस का अपने शानों से कोई बोझ उतारे जैसे अब जो चमका है ये ख़ंजर तो ख़याल आता है तुझ को देखा हो कभी नहर किनारे जैसे उस की आँखें हैं कि इक डूबने वाला इंसाँ दूसरे डूबने वाले को पुकारे जैसे