शमीम-ए-ज़ुल्फ़ ओ गुल-ए-तर नहीं तो कुछ भी नहीं दिमाग़-ए-इश्क़ मोअत्तर नहीं तो कुछ भी नहीं ग़म-ए-हयात बजा है मगर ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-हयात से बढ़ कर नहीं तो कुछ भी नहीं हक़ीक़त-ए-ग़म-ए-दौराँ के साथ ऐ नासेह फ़रेब-ए-शीशा-ओ-साग़र नहीं तो कुछ भी नहीं रह-ए-वफ़ा में दिल ओ जाँ निसार कर जाएँ अगर ये अपना मुक़द्दर नहीं तो कुछ भी नहीं अज़ाब-ए-दर्द पे नाज़ाँ हैं अहल-ए-दर्द मगर नशात-ए-दर्द मयस्सर नहीं तो कुछ भी नहीं ये कह के छोड़ दी राह-ए-ख़िरद मिरे दिल ने क़दम क़दम पे जो ठोकर नहीं तो कुछ भी नहीं वो हर्फ़ जिस से है मंसूर ओ दार को निस्बत लब-ए-जुनूँ पे मुकर्रर नहीं तो कुछ भी नहीं नसीम बन के हम आए हैं इस गुलिस्ताँ में कली कली जो गुल-ए-तर नहीं तो कुछ भी नहीं