शनाख़्त मिट गई चेहरे पे गर्द इतनी थी हमारी ज़िंदगी सहरा-नवर्द इतनी थी तमाम-उम्र उसे सींचते रहे लेकिन गुलाब दे न सकी शाख़ ज़र्द इतनी थी गिरे न अश्क कभी हादसों के दामन पर हमारी आँख शनासा-ए-दर्द इतनी थी तिरी पुकार का चेहरा दिखाई दे न सका मिरे क़रीब सदाओं की गर्द इतनी थी तलाश-ए-ज़ीस्त में दिल जैसी चीज़ छूट गई हिकायत-ए-दिल-ओ-जाँ फ़र्द फ़र्द इतनी थी झुलसती धूप का उस पर गुमाँ गुज़रता था बिछी थी राह में जो छाँव ज़र्द इतनी थी पिघल सकी न कभी बर्फ़ अकेले-पन की 'ख़ुमार' वो शो'ला-रू भी तबीअ'त की सर्द इतनी थी