शांति की दुकानें खोली हैं फ़ाख़ताएँ कहाँ की भोली हैं कैसी चुप साध ली है कव्वों ने जैसे बस कोयलें ही बोली हैं रात भर अब ऊधम मचाएँगे ख़्वाहिशें दिन में ख़ूब सो ली हैं चल पड़े हैं कटे-फटे जज़्बे हसरतें साथ साथ हो ली हैं कौन क़ातिल है क्या पता चलता सब ने अपनी क़बाएँ धो ली हैं शेर होते नहीं तो 'अल्वी' ने ख़ून में उँगलियाँ डुबो ली हैं