शरह-ए-जमाल कीजे शहादत के मा-सिवा हुस्न-ए-अज़ल की बात रिवायत के मा-सिवा रग रग में दौड़ती थी बहारों की ताज़गी अब कुछ नहीं लहू में हरारत के मा-सिवा मा'नी में ढाल दीजिए इक एक हर्फ़ को कीजे मगर कलाम इबारत के मा-सिवा मिलता नहीं जहान में रंग आस्तान का मातम है कर्बला में शहादत के मा-सिवा बस इक क़याम दीद पे है इज्तिमा-ए-कुल मुमकिन नहीं है हश्र क़यामत के मा-सिवा उठता नहीं है पाँव 'समद' आबला बग़ैर लब पे नहीं है हर्फ़ सदाक़त के मा-सिवा