शर्बत में दे शराब भी डट कर गिलास में वर्ना रहेगी प्यास सिमट कर गिलास में तन्हा फ़क़त नशा नहीं आईने की तरह थोड़ा बहुत हो अक्स भी कट कर गिलास में हर घूँट ले गया मुझे माज़ी के रू-ब-रू कुछ ऐसे ज़ेहन रह गया बट कर गिलास में जिस की शुआएँ शीशे से बाहर दिखाई दें कुछ ऐसे रंग आए पलट कर गिलास में पीने से दिल दिमाग़ पे छाया ख़ुमार सा वर्ना कहाँ खुली थी उलट कर गिलास में रोके हुए था कौन न जाने मिरा जुनूँ किस के न जाने लब थे लिपट कर गिलास में उतनी ही और अपनी तलब को बढ़ा गई 'परवेज़' जितनी रह गई घट कर गिलास में