शरीक-ए-आलम-ए-कैफ़-ओ-सुरूर मैं भी था कि रात जश्न में तेरे हुज़ूर मैं भी था अजीब वक़्त था दुनिया क़रीब थी मेरे ग़ज़ब ये था तिरे दामन से दूर मैं भी था ग़मों के घेरे में जब रक़्स कर रही थी हयात तमाश-बीं की तरह बे-शुऊर मैं भी था न रुकना राह में शर्त-ए-सफ़र में शामिल था थकन से वर्ना बहुत चूर चूर मैं भी था उतर रहा था लहू किस बला का आँखों में तिरे ख़याल में उस दम ज़रूर मैं भी था गुज़रते वक़्त ने पहरे बैठा दिए 'आबिद' ख़ताएँ उन की न थीं बे-क़ुसूर मैं भी था