शरीक-ए-रस्म-ए-गिर्या हैं समुंदर-आश्ना आँखें जहान-ए-आरज़ू में कर न दें महशर बपा आँखें ये पत्थर की न हो जाएँ कहीं अक़्लीम-ए-हस्ती में रखे महफ़ूज़ आशोब-ए-तमन्ना से ख़ुदा आँखें तुम्हारे वादा-ए-शब का यक़ीं आता नहीं उन को रहीन-ए-फ़ित्ना-ए-ग़म हैं सुकूँ ना-आश्ना आँखें हिसार-ए-दश्त-ए-वहशत में बगूलों के इशारों पर हथेली पर लिए फिरती है मुद्दत से हवा आँखें फ़सील-ए-शहर-ए-तारीकी से जाने कब रिहाई हो असीर-ए-क़र्या-ए-शब हैं मिरी सीमाब-पा आँखें तुम्हारी शान-ए-यकताई है आलम दिल-फ़रेबी का वगरना देखती हैं यूँ पस-ए-मंज़र में क्या आँखें हरीम-ए-नाज़ में तेरा न गर जल्वा दिखाई दे तो बेहतर है रह-ए-उल्फ़त में हो जाएँ फ़ना आँखें हुई मुद्दत निगाहों से छुआ था मरमरीं चेहरा तिलिस्म-ए-ख़्वाब से अब तक न हो पाईं रिहा आँखें 'मुज़फ़्फ़र' ज़िंदगी में फ़र्ज़ तो इक बार था लेकिन तवाफ़-ए-काबा-ए-दिल कर चुकी हैं बारहा आँखें