शरीक-ए-सोज़-ए-दरूँ जब से हो गए अल्फ़ाज़ नवा-ए-दर्द में शो'ले पिरो गए अल्फ़ाज़ सुना के दास्ताँ दिल-दोज़ वारदातों की न जाने कितनों के दामन भिगो गए अल्फ़ाज़ कभी कभी तो कुछ ऐसा भी इत्तिफ़ाक़ हुआ तड़प के जाग उठे अरमाँ तो सो गए अल्फ़ाज़ मिली न जब उन्हें इबलाग़ की तवानाई तो आप अपने मुक़द्दर को रो गए अल्फ़ाज़ उठे तो सारे ज़माने की बन गए आवाज़ दबे तो आबरू अपनी डुबो गए अल्फ़ाज़ ख़तीब-ए-शहर ने की बात दोस्ती की मगर दिलों में तुख़्म अदावत के बो गए अल्फ़ाज़ ग़ज़ल-सराई-ए-'मंशा' पे यूँ हुआ महसूस कि जैसे रूह के अंदर समो गए अल्फ़ाज़