शर्त-ए-उल्फ़त है कि हर नाज़ उठाया जाए लब पे इक हर्फ़-ए-शिकायत भी न लाया जाए आज तक जिस ने हर इक गुल की हिफ़ाज़त की है क्यों उसी ख़ार से दामन को बचाया जाए शिद्दत-ए-रंज-ओ-अलम से निकल आएँ आँसू किसी मजबूर को इतना न सताया जाए फ़ाएदा क्या है भला इश्क़ की रुस्वाई से क्यों ये अफ़्साना ज़माने को सुनाया जाए