मुझे कुछ और ही मंज़र दिखाई देता है ये शहर-ए-ख़ूँ का समुंदर दिखाई देता है बना लिया है जो हम ने मकान शीशे का हर एक हाथ में पत्थर दिखाई देता है इसी ख़ता पे कि इक दिन लिया था नाम तिरा तमाम शहर सितमगर दिखाई देता है जो हम नहीं तो 'जमाल' और कोई हम जैसा ग़मों की धूप में अक्सर दिखाई देता है