शौक़-ए-वारफ़्ता चला शहर-ए-तमाशा की तरफ़ बढ़ गए हम भी हिसार-ए-हुस्न-ए-लैला की तरफ़ हम से मौजें कह रही थीं आ मिरी आग़ोश में हम कहाँ यूँ जा रहे थे मौज-ए-दरिया की तरफ़ इस क़दर डूबे गुनाह-ए-इश्क़ में तेरे हबीब सोचते हैं जाएँगे किस मुँह से तौबा की तरफ़ क्या ज़रूरी है कि हिर्स-ए-जल्वा-ए-सद-रंग में हर नज़र भटके किसी भी हुस्न-आरा की तरफ़ आयत-ए-हुस्न-ओ-मोहब्बत से है बस दो ही मुराद एक है मेरी तरफ़ इक माह-पारा की तरफ़ शहर-ए-दिल वीराना कर्दम पा-ब-जौलाँ मी-कुनी जी खिंचा जाता है अपना अब तो सहरा की तरफ़ सारी दुनिया दुश्मन-ए-जाँ बन गई है ऐ 'सिराज' कोई पत्थर भी न आया तेरे शैदा की तरफ़