शौक़-ए-वारफ़्ता को मलहूज़-ए-अदब भी होगा शर्त है माल-ए-अरब पेश-ए-अरब भी होगा लब-ओ-रुख़्सार में होगी गुल-ओ-महताब की बात आँख में तज़किरा-ए-बिंत-ए-इनब भी होगा मान लेता है मिरी बात मिरा हीला-तराज़ और सब वा'दों में इक वादा-ए-शब भी होगा इश्क़ वो शय है कि बर्फ़ीले निहाँ-ख़ानों में सर्द पड़ जाए शरर-बार तो जब भी होगा बे-तअल्लुक़ ही सही ये मगर उस शख़्स के पास दिल जो लगता है तो लगने का सबब भी होगा हर गली शहर की ग़ालीचा-ए-उश्शाक नहीं ख़ून-ए-नाहक़ है तो फिर दाद-तलब भी होगा क़हर दरवेश तो होता है ब-जान-ए-दरवेश ज़ेर-ए-फ़रमान जो होता था सो अब भी होगा कर्ब के ज़हर का मारा हुआ इंसान है ये सर पे सौ बोझ मगर ख़ंदा-ब-लब भी होगा इक असा पास न हो ज़ोम-ए-कलीमी भी हो ऐसा लगता है कि ये कार-ए-अजब भी होगा यूँ तो बे-आब हैं खे़मे ये जहाँ तक भी हैं दिल ये कहता है कहीं अब्र-ए-तरब भी होगा