शौक़-ए-दिल बढ़ के इक आज़ार न होने पाए ज़ुल्फ़-ओ-मिज़्गाँ रसन-ओ-दार न होने पाए फिर न ये लुत्फ़-ए-तमाशा न ये रक़्स-ए-बिस्मिल तीर सीने से कोई पार न होने पाए चारासाज़ी भी है मिनजुमला-ए-आदाब-ए-सितम अपने ग़म का कोई ग़म-ख़्वार न होने पाए एक ज़ंजीर-ए-गिराँ-बार है ये आज़ादी हैफ़ वो दिल जो गिरफ़्तार न होने पाए बात इक हुस्न-ए-सलीक़ा की है रिंदी भी 'शफ़ीक़' कितने मय पी के भी मय-ख़्वार न होने पाए