सई-ए-ग़म चश्म-ए-शरर-बार तक आ पहूँची है ख़ामुशी जुरअत-ए-इज़हार तक आ पहूँची है अब कहाँ हम में वो अगला सा नियाज़-ओ-तस्लीम बात उन से हद-ए-तकरार तक आ पहूँची है मोहतरम चारागरो अब भी न समझो तो हैफ़ दिल की उलझन रुख़-ए-बीमार तक आ पहूँची है क्यों न रह जाए पिघल कर सर-ओ-सामान-ए-हयात गर्मी-ए-हुस्न भी बाज़ार तक आ पहूँची है हम ने छेड़ा था कभी क़िस्सा-ए-ज़ुल्फ़-ओ-मिज़्गाँ बात बढ़ कर रसन-ओ-दार तक आ पहूँची है है यही वक़्त सँभलने का सँभल जा नादाँ मस्ती-ए-जौर जफ़ा-कार तक आ पहूँची है ज़िंदगी कसरत-ए-इक़रार से घबरा के 'शफ़ीक़' देखिए वहदत-ए-इंकार तक आ पहूँची है