शब-ए-वा'दा कह गई है शब-ए-ग़म दराज़ रखना इसे मैं भी राज़ रक्खूँ इसे तुम भी राज़ रखना ये है ख़ार ख़ार वादी यूँही ज़ख़्म ज़ख़्म चलना ये है पत्थरों की बस्ती यूँही दिल-ए-गुदाज़ रखना हमा-तन जुनूँ हूँ फिर भी रहे कुछ तो पर्दा-दारी कि बुरा नहीं ख़िरद से कोई साज़-बाज़ रखना मिरे नाख़ुन-ए-वफ़ा पर कोई क़र्ज़ रह न जाए तिरे दिल में जो गिरह है उसे नीम-बाज़ रखना वही लय जो अन-सुनी भी वही 'शाज़' नग़्मगी भी ये हिसाब-ए-ख़ामुशी भी मिरे नय-नवाज़ रखना