शेर-गोई तो इक बहाना है ए'तिबार-ए-सुख़न बढ़ाना है जिस से हों फ़िक्र के दरीचे वा ऐसा माहौल अब बनाना है हो ख़ुदी से अगर शनासाई ठोकरों में तिरी ज़माना है कल ज़माने ने आज़माया था अब ज़माने को आज़माना है उस गली की कशिश नहीं जाती यूँ तो हर रोज़ आना-जाना है गर तबीअत तिरी नहीं माइल फिर तकल्लुम भी ताज़ियाना है जी रहा हूँ किसी मुसाफ़िर सा सिर्फ़ उक़्बा मिरा ठिकाना है जब मज़ामीन-ए-नौ चले आएँ शायरी को सुरूर आना है नक़्द हो शे'र हो कि फ़न-पारा अपना अंदाज़ नासिहाना है