मोहब्बत में भी नफ़रत आ गई थी मोहब्बत थी नहीं ये दिल-लगी थी हुआ था इश्क़ उस को भी किसी से ज़बाँ ख़ामोश सूरत बोलती थी तलब फ़ुर्क़त की बढ़ती जा रही है तिरे ग़म की अजब सी रौशनी थी मिरा माज़ी था अच्छा या नहीं था ये सब की सब इनायत आप की थी तज़ब्ज़ुब की फ़ज़ा में खप गया हूँ पुराना घर था लेकिन रह नई थी उसी के हाथ में चारों थे इक्के ये बाज़ी ज़िंदगी की आख़िरी थी उठा कर घूमता था बोझ अपना मयस्सर क्यों वफ़ा में बेबसी थी किया इंकार उस ने फ़ैसले से मोहब्बत उस की 'नासिर' सरसरी थी